यह असभ्य और बर्बर समाज है। यहाँ सामन्तशाही प्रवृत्ति औेर उपभेक्तावादी संस्कृत जन्म ले चुकी है। इसके छांव तले हत्या… अपराध… सेक्स स्कैण्डल… ब्लैकमेलिंग आदि अपनी प्रभुत्ता कायम किए हुए हैं।
साधन जुटाने का सबसे आसान जरिया औरत को ही समझा जाता है। महिलाएं सब कुछ करने के लिए कमजोर होती हैं। सामाजिक कार्यकर्ता की भूमिका से लेकर राजनीतिक नेतृत्व तक की भूमिका से जुड़ने वाली आज की औरत पुरुष वर्ग के हमले के लिए कहीं अधिक सुलभ हुई है। दमनात्मक दृष्टि के विरोध में खड़ी होकर अपने ऊपर होने वाले हमले की धार दी है। परिवार के आर्थिक आधार पर अपना अधिकार जताती है। परिवार से बाहर निकलकर अपनी छमता को पुरषों के समान्तर स्थापित करती है तो जाहिर है कि घर और बाहर दोनों जगह टकराहट मोल लेती है।
आज भी हमारे घरों में लड़की पैदा होने पर लोगों के चेहरे उतर जाते हैं। राजस्थान में एक ऐसा गाँव है जहाँ पिछले पचास वर्षो में कोई बारात नहीं आई। बेटी का बाप बनने की जगह इस गाँव में लोग बेटी की हत्या कर देना बेहतर समझते हैं।
हिंसा मानव के व्यक्तिव का विचित्र पहलू है। प्राचीन काल में मानव अपना पेट भरने के लिए आखेट करता था। जैसे- तैसे जिन्दा रहने के लिए उसने साधन जुटाए। पेट तो भर गया किन्तु अपेछाएं भी बढ़ती गईं। नई प्रवृत्ति उदय होने लगी। हिंसा… अपराध … बलात्कार का जन्म हुआ।
भारतीय समाज कभी जागरुक हुआ करता था तो अपराध न के बराबर होते थे। महिलाओं को पुरुष से भी महत्वपूर्ण समझा जाता था। इतिहास गवाह है कि प्राचीन काल से ही राजाओं द्वारा विष -कन्या का उपयोग बद्स्तूर बड़े कु्शल ढंग से जारी है। चाहे वह राजनीति हो या अपराध। अध्ययन इस बात के संकेत देते हैं कि भारतीय समाज पहले से अधिक क्रूर व नृ्शंस हुआ है।
‘अपराध’ विकृत मानसिकता की उपज है। जिसकी वजह से सुरझा व वयवसथा सब कुछ खतरे में पड़ गई है। महिलाओं के विरुदध अपराध बढ़ गए हैं।
राजनीतिकों में अपराध का ग्राफ तो चढ़ ही रहा है तो महिलाओं की भागीदारी भी कुछ कम नहीं है। घर की चार दीवारी लांघकर समाज के हर क्षेतर में पुरषों के कंधे से कंधा मिलाकर चलने का दावा करने वाला महिला वर्ग, अपराधों के मामले में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने लगा है।
राजनीति में बहुत कुछ हो सकता है। बहुत कुछ होता रहा है, आगे होता रहेगा। भारतीय समाज गहरे में छिपा हुआ डिक्टेटर हो गया है, तानाशाह हो गया है। सांस्कारिक है, पर सीमाओं में बंधा है, धाराओं में जकड़ा हुआ है और अतीत का प्रतिनिधित्व करने लगा है।
प्रेम है- पैसे से। मत पूछो कैसे? कितना महान शख्स रहा होगा, जिसने पैसे का चलन शुरु किया। सुनने में आता है कि पहले पहल अयोध्या से भगवान राम के समय में, टकसाल की नींव पड़ी थी। सारी दुनिया इसी मकड़जाल में उलझ गई है। स्वतंत्रता का मूल भूल गई है और जीवन भी….।
अपराध को बढ़ावा देने में कुछ हद तक मीडिया भी दोषी है। पत्र-पत्रिकाओं में अश्लील तस्वीर का प्रकाशन अनेक प्रकार के कुतर्कों के साथ किया जाता है, जिससे कच्ची उम्र की लड़कियाँ बहक जाती हैं। फिर शोषण होता है। तरह-तरह के शोषण। टी.वी. व संचार के माध्यम से बड़े सुनहरे ख्वाब दिखाए जाते हैं।
नैतिकता या अनैतिकता सारी परिभाषाएं समाज द्वारा गढ़ी गई हैं। टायशन की शिकार युवती के साथ जो कुछ भी घटा, वह समुचे अमरीकी समाज के साथ ही नहीं घटा, लेकिन वहाँ का समाज युवती को ही विलेन मानता है। भारतीय राजनीतिक गण भी सामाजिक न्याय की बातें करना भी खूब जानते हैं। ये बताकर मुक्त होना उनके बाएं हाथ का खेल है कि उन्हें बदनाम करने में राजनीतिक षणयंत्र है। सभी जानते हैं कि शासन व्यवस्था सैकड़ों दरिन्द्रों के बल पर ही टिकी है। राजनीतिक सत्ता पर बैठे लोगों पर अब विश्वास उठ गया है। कर्नाटक में एक नर्स के साथ बलात्कार के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने युवकों की कम उम्र को देखते हुए उनकी सजा कम कर दी। कुल मिलाकर फैसला औरत के खिलाफ गया।
अहिल्या का उदाहरण लें। चन्द्रमा ने मुर्गा बनकर बांग दी। अहिल्या के पति गौतम ऋषी प्रातः स्नान के लिए चले गए थे। कोई नहीं सोचता कि आखिर इसमें अहिल्या का दो क्या था। इन्द्र अहिल्या के लिए इन्द्र नहीं था। वह उस समय उनका पति गौतम ही था। अहिल्या कहाँ दोषी थी। वह तो छली गई थी। फिर उसे सजा किस बात की मिली।
इसलिए पहला विचार इसी बात का होना चाहिए कि यौन शब्द नैतिक है या अनैतिक। जापान, कोरिया, सिंगापुर और यहाँ तक भारत जैसे कई दे्शों में काल गर्ल शब्द की जगह सेक्स वर्कर का इस्तेमाल होने लगा है।
सन् 1975 में जब संयुक्त राष्ट्र ने अन्तराष्ट्रीय महिला वष वर्ष घोषित किया था, तब से लेकर आज इत्तीस वषों में पूरे संसार का ध्यान स्त्रियों की ओर गया है। संसार भर में उनके समर्थन में आवाजें उठी हैं। यदि दमन बढ़ा है तो अधिकार भी मिले हैं।
अधिकारों की चकाचौंध और मीडिया कवरेज के इस दौर में स्त्री के उत्पीड़न में कुछ कमी आई है? कुछ लोग कहते हैं कि जबसे औरतों ने अधिकार माँगे हैं, तबसे उनके प्रति अपराध भी बढ़े हैं। यानी कि गाय बनकर रहना है तो रहो, नहीं तो उत्पीड़न झेलो।
हमारे पास बहुत क्रान्तिकारी कहे जाने वाले कानून है, लेकिन पुलिस, कोर्ट-कचेहरी, लम्बी न्यायिक प्रक्रियाएं और साक्ष्य की अनिवार्यता के कारण कितने अपराधों को सजा मिल पाती है। यह तो हम सब जानते हैं। जरूरी तो यह है कि लड़कियों के मन में हम उस शर्म को निकाल फेंके, जो इस तरह की घटनाओं को चुपके-चुपके सहने पर मजबूर करती हैं।
जवाब सीधा और दो टूक है। औरतों को संगठित ताकत ही तत्कालिक तरीकों से अपनी ताकत बढ़ाने के लिए उपयोग कर सकती हैं। यह निश्चय ही कठिन है पर असम्भव नहीं।
अपने प्रति ज्यादतियों के खिलाफ आवाज उठाने की ताकत महिलाओं के एक बड़े हिस्से में आ चुकी है। पहले दहेज के विरुदध बोलने से लोग कतराते थे, लेकिन आज बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों की रपटें दर्ज करवाई जाती हैं। आंद्द्र में ्यराब पीकर अपराद्द कर्म करने वालों को झुकना पड़ा। यही नहीं, ्यराब बिक्री पर टिकी आंधर की समूची अरथ व्यवस्था महिला आन्दोलन की ताकत के सामने झुक गई।
ज्यादतियों के खिलाफ आवाज उठाने की ताकत आज महिलाओं के एक बहुत बड़े परतिशत में आ गई हैं। चाहे वह निर्वस्त्र कर सरेआम पीटी और घुमाए जाने वाली उषा धीमान और भंवरी देवी हो या सांसद पति के आतंक से आतंकित विधायक पत्नी गीता देवी सिंह या कि दहेज के लिए परेशान की जाती किसी पूर्व मंत्री (अरुण नेहरु) की पुत्री। सभी किसी न किसी रूप में अन्याय और अपराध के खिलाफ मोर्चा लिए हुए हैं। यही आशा की नई किरण है।
महिलाओं के पक्ष में तथाकथित रूप से बने तमाम कानूनी विसंगतियों से ग्रस्त है। उदाहरण के लिए औरत के गुप्तांगों में जलती सलाख डालना या किसी बच्ची के गुप्तांगों को क्षतिग्रस्त करना बलात्कार नहीं माना जाता। औरत के शरीर पर यदि संघष करने के फलस्वरूप निशान नहीं है तो इसे उसकी सहमति दिखाया जा सकता है आदि।
प्रेम हमारी हर तरह की उन्नति का केन्द्रीय तत्व है, लेकिन क्या हम वास्तव में अपने दिमाग से अपने आनन्द के लिए अपने हित में सोच सकते हैं। यौन नैतिकता का यक्ष प्रश्न यही है।