फुलमतिया के माँ बनने की चर्चा पिछले दस दिनों से बच्चे-बच्चेकी जुबान पर है|
सामान्य परिस्थितियों में शायद कोई खास महत्व नहीं होता लेकिन फुलमतिया ने तो विशेष परिस्थितियों में बेटा जन्मा है|
किसना कहार की इकलौती बेटी फुलमतिया विधवा है|
सात साल की उम्र में गुड्डे-गिड़ियों की तरह होने वाले अपने विवाह की तो उसे ठीक से याद भी नहीं है|
जवानी की चौखट पर पहला कदम रखते ही सस्ते से लाल जोड़े में लपेटकर उसे एक अनजान युवक के साथ विदा कर दिया गया|
ससुराल आगमन के तीसरे दिन ही उसका पति परलोक सिधार गया. मानो इस दुर्घटना के लिए फुलमतिया सीधी जिम्मेदार थी. सास-ससुर के साथ सारे गाँव ने उसे अशुभ होने का प्रमाण-पत्र जारी कर दिया|
बेटे के दुःख में विछिप्त से माता-पिता ने कोस-कोस कर परमात्मा का सारा क्रोध उस पर निकालने का प्रयास किया|
जब परिस्थितियाँ असहाय हो गई तो फुलमतिया जैसी गई थी वैसी ही बाप के घर वापस आ गई|
सभी ने उससे सहानभूति जताई लेकिन फुलमतिया को न उस दुःख का पता था, न ही लोगों की हमदर्दी का मतलब वह समझ रही थी|
यह सब इतनी तेजी से घटित हुआ, जैसे सिनेमा हॉल में बैठे दर्शक के सामने से फिल्म गुजरती है|
धीरे-धीरे यह घटना पुरानी पड़ गई|
जीवन अपनी गति से आगे बढ़ गया|
फुलमतिया को जीने का एक नया अंदाज बता दिया गया और उसने हमेशा की तरह इस आज्ञा को भी एक मूक जानवर की तरह मान लिया|
फुलमतिया उम्र के नाजुक मोड़ पर खड़ी थी. बचपन और यौवन की वयं संधि पर खड़ी अभी वह अपने आप को नए परिवेश में ठीक से ढाल भी नहीं पाई थी कि उसके शरीर में परिवर्तन तेजी से होने लगे. उसका मन भी नई-नई भावनाओं को जन्म देने लगा. और दुःख…जिसको लड़कपन में वह एक मामूली हादसे की तरह सह गई थी. अब कचोटने लगा. उसे एक रिक्तता का अनुभव होने लगा|
उन दिनों वह अपनी माँ की तरह ठाकुर की हवेली में काम करती थी|
ठाकुर अभय प्रताप सिंह पुराने जमींदार है. वक्त को करवट बदलते अपनी आँखों से देखा है उन्होंने|
एक ज़माने में उनकी यह हवेली दूर-दूर तक अपनी मिसाल रखती थी. इसका अंदाजा आज भी उसके बुलंद दरवाजे को देखकरलगाया जा सकता है. यह बात दूसरी है कि आज यह अपनी उसी ऊँचाई के बावजूद वह लोगों के मन में वह आदर और भय नहीं उत्त्पन्न कर पाता|
कालचक्र के साथ आज वह जन बनकर रह गए हैं पर उनके पुरखे कभी इलाके के लोगों के भाग्य का फैसला करते थे|
परिवर्तन तो शाश्वत है. हम चाहकर भी उसे रोक नहीं सकते, फिर भी प्रयास तो करते ही है…जब तक हार नहीं जाते|
ठाकुर साहब भी अपवाद कैसे होते…वे भी पुरखों की पूँजी को लुटाकर पुराने गौरव को जिन्दा रखने का असफल प्रयास कर रहे हैं. आज उनके पास विरासत के नाम पर एक अदद जर्जर हवेली… थोड़ी जायदाद और पुरखों की गौरवगाथा तथा परिवार के नाम पर एक बेटा….जिसे उनकी स्वर्गीय पत्नी १५ वष पहले उन्हें सौंप कर इस दुनिया से चल बसी थी|
उनका बेटा दिग्विजय बड़ा होनहार है. ठाकुर साहब ने उसे बड़े लाड़-प्यार से पालकर बड़ा किया है. आजकल शहर में शिक्षा प्राप्त कर रहा है|
अब की बार जब दिग्विजय गर्मियों की छुटियों में गाँव आया तो फुलमतिया दिखाई पड़ती है… दोनों ने एक दूसरे को देखा|
बचपन में वे दोनों साथ खेलते थे. उन दिनों फुलमतिया अपनी माँ के साथ हवेली आया करती थी|
दोनों घर का खेल जोड़ते और घंटों एक दूसरे में खोए रहते. इस दौरान उनकी कई बार लड़ाई भी हो जाती पर एक दूसरे के बिना अधिक देर रह नहीं पाते, फिर मिल जाते|
फुलमतिया को काफी दिनों के बाद देख रहा था दिग्विजय. काफी बदल गई थी. बचपन की चंचल फूल की तरह खिली हुई फुलमतिया भरपूर यौवन में भी उदास और लुटी सी दिख रही थी|
दिग्विजय को जब उसकी कहानी का पता चला तो बचपन की सखी के प्रति उसकी संवेदना पूरी तरह स्वाभाविक थी|
वह फुलमतिया को इधर-उधर काम करते हुए देखता रहता. उससे बात करना चाहता पर साहस नहीं कर पाता|
आज भी फुलमतिया उसे अच्छी लगती है. एक आकषर्ण सा उसके अंदर पनप रहा था.उसका भोला यौवन दिग्विजय के मन में बसता जा रहा था|
व्यवस्था का निषेध अधिक देर तक हमारी भावनाओं को बांधे नहीं रख पाता|
एकदिन दोपहर के बाद फुलमतिया दिग्विजय के कमरे में नाश्ता लेकर आई, अभी वह ट्रे मेज पर रख ही रही थी कि दिग्विजय ने पीछे से उसके कन्धे पर अपने हाथ रख दिए|
फुलमतिया के पूरे शरीर में जैसे बिजली की धारा दौड़ गई, वह सीधी खड़ी हो गई. दिग्विजय ने उसे हाथों के इशारे से अपनी ओर घुमा लिया|
फुलमतिया ने बड़ी-बड़ी हिरनी जैसी आँखें उठाकर दिग्विजय की ओर देखा|
दिग्विजय डूब गया उनमें….उसके शब्द मौन हो गए…पर आँखें कहने से नही चूँकी…..
मैं तुम्हारी बड़ी-बड़ी गहरी आँखों में डूब जाना चाहता हूँ……
फुलमतिया की आँखों में प्रार्थना थी|
बड़ी मुश्किल से सँभालती हूँ अपने आपको… मुझे कमजोर मत बनाओ, बहक जाऊँगी मैं|
यह स्थिति थोड़ी देर ही रही होगी कि फुलमतिया को अपनी स्थिति का आभास हो गया|
वह तेजी से कमरे के बाहर निकल गई|
उस रात दिग्विजय को नींद नहीं आई| फुलमतिया का चेहरा उसकी आँखों के आगे नाचता रहा. वह सुबह का इन्तजार कर रहा था. आखिर रात बीत ही गई|
सुबह से ही उसकी आँखें फुलमतिया को तलाश करने लगी. परन्तु वह उसके सामने नहीं पड़ी| दो दिन तक यही स्थिति रही|
दिग्विजय बेचैन हो गया|
तीसरे दिन उसने बड़ी नौकरानी से अपना कमरा साफ़ कराने के लिए कहा- उस समय फुलमतिया शाम के भोजन की तैयारी करवा रही थी|
बड़ी ने फुलमतिया को वह काम बंद करके कमरा साफ़ करने के लिए कहा|
फुलमतिया ने नजरें उठाकर दिग्विजय को देखा. वह उसकी बात का अर्थ खूब समझ रही थी| दिग्विजय खड़ा मुस्कुरा रहा था|
फुलमतिया चुप-चाप उठी और कमरे में झाड़ू लेकर पहुँच गई. दिग्विजय अभी तक बाहार ही था|
वह एक-एक चीज को व्यव्स्थित करने लगी. मेज पर दिग्विजय का फोटो रखा था| उसने उसे उठाकर अपने आँचल से साफ़ किया फिर दोनों हाथों से साफ़ किया फिर दोनों हाथों में पकड़ कर अपनी आँखों के सामने ले आई….प्यार भरी नजरों से निहारा और मन ही मन कहा-
तुम समझने की कोशिश क्यों नहीं करते…क्यों मुझे तबाह कर देना चाहते हो…..
अभी वह मंत्र-मुग्ध सी फोटो देख ही रही थी कि दिग्विजय का हाथ पीछे से उसके कँधें पर पड़ा|
जैसे उसकी चोरी पकड़ी गई. उसने जल्दी से फोटो को यथा स्थान पर रख दिया| वह नजरें जमीन में गड़ा कर चुपचाप खड़ी हुई पैर के अंगूठे से कमरे के पुराने कालीन को कुरेदने लगी|
दिग्विजय उसके सामने आ गया था|
उसने फुलमतिया के चेहरे को ऊपर उठाया|
फुलमतिया का चेहरा शर्म से लाल हो गया| उसकी आँखें बंद हो गई. मानो वह अपनी कमजोरी छुपाए रखना चाहती थी|
दिग्विजय पता नहीं क्या-क्या कहता रहा पर फुलमतिया के कानों में तो कोई आलौकिक संगीत गूँज रहा था| वह बेसुध सी हुई जा रही थी. दिल जोर-जोर धधक रहा था|
पैर काँप रहे थे| उसे लगा जैसे वह अभी गिर पड़ेगी लेकिन ऐसा हुआ नहीं| दिग्विजय ने उसे अपनी बाँहों में भर लिया| उसके काँपते हुए होठों अपने प्रेम की मोहर अंकित कर दी थी|
फुलमतिया उसके शरीर की गर्मी से पिघलने लगी थी| उसने अपने आप को ढीला छोड़ दिया|
दिग्विजय ने जब उसके रक्तिम मुखड़े को उठाया तो उसने फुस्फुसाते हुए प्रार्थना की…..
छोड़ दीजिए कुँवर साहब! किसी ने देख लिया तो गजब होजाएगा|
लेकिन उसकी आँखें जैसे कह रही थी…पीस कर रख दीजिए मुझे….|
दिग्विजय भी वक्त नजाकत को जानता था| उसने फिर अपने होठ फुलमतिया के होठों पर रख दिए, जैसे उसका सारा रस चूस लेना चाहता हो|
दिग्विजय के बाहुपास से आजाद होने के बाद फुलमतिया ने जल्दी से अपने आपको संयत किया और बिना सफाई किये ही कमरे से चली गई|
प्रेम की अगर एक हलकी सी चिंगारी भी सुलग जाय तो शोला बनने में देर नहीं लगती, और परिस्थितियाँ अनूकूल हो तो फिर कहना ही क्या|
लगभग सुनसान सी रहने वाली लंबी चौड़ी हवेली में उनकी प्रेम बेल को परवान चढ़ने के अवसर थे|
वह प्रेम सम्बन्ध प्रगाढ़ होता गया|
दोनों एक-दूसरे में खोए रहते| फुलमतिया भी तब भूल गई थी| उसके यौवन का बाँध टूट गया और वह पहाड़ी नदी की तरह उछाल मारता हुआ बहने लगा|
कच्ची उम्र का प्रेम भावनाओं के धरातल पर होता है|
दोनों ने एक-दूसरे का भावनाओं में वरण कर लिया और एक दिन फुलमतिया की प्यारी सखी राजो की उपस्थिति में भगवान को साक्षी बनाकर शादी भी कर ली और हवेली में लगे ठकुराईन के तैल चित्र के सामने फुलमतिया ने हाथ जोड़कर अपने सुहाग के लिए आशीर्वाद की कामना की|
राजो उन दोनों के इस सम्बन्ध की अकेली राजदार थी|
कहना न होगा कि दोनों में पति-पत्नी का सम्बन्ध भी स्थापित हो चुका था| दोनों दुनिया से बेखबर स्वप्न लोक में विचरण कर रहे थे लेकिन यह स्थिति ज्यादा दिनों तक नहीं रही|
एक दिन जब दोपहर को रोज की तरह फुलमतिया कमरे में पहुँची तो दिग्विजय उसके इन्तजार में बेचैन टहल रहा था|
उसको आया देख बाँहें फैलाकर स्वागत किया और फुलमतिया उसमें समा गई|
दिग्विजय की बाँहों का बंधन कसने लगा था|
फुलमतिया ने उसके चेहरे को अपने दोनों हाथों में ले लिया और अपने होठों से उसके चेहरे पर लगातार कईचुम्मन जड़ दिए|
उसी समय ठाकुर साहब की कड़कदार आवाज गूँजी|
काँप गए दोनों…..| जल्दी से अलग हो गए| अपराध का भाव चेहरे पर उभर आया था| आँखें झुक गए…..
फुलमतिया कमरे से बाहर जाने लगी….ठाकुर साहब के पास से गुजरते समय उसके कानों में उनका तीखा क्रोध भरा स्वर सुनाई पड़ा-
कम से कम अपनी औकात तो देख लेती|
रातभर फुलमतिया की आँखों में दिग्विजय का चेहरा नाचता रहा| उसको विश्वास हो गया था कि यह कहानी खत्म हो गई है| अब इन यादों के सहारे ही जीवन काटना पड़ेगा|
ठाकुर साहब के शब्द अभी भी उसके कानों में गूँज रहे थे|
उसे अपनी भूली हुई औकात का फ़िज से अहसास हो गया था….लेकिन एक बात का गर्व उसे अपने आप पर अवश्य था कि वह कुँवर साहब की पत्नी थी…चाहे दुनिया की नजरों में न सही|
अगले दिन से फुलमतिया हवेली नहीं आई| ठाकुर साहब के सामने जाने का साहस नहीं था उसमें| दो दिन इसी तरह बीत गए…वह बेचैन तो थी, अपने प्रियतम को देख पाने के लिए लेकिन मजबूरी थी…दिल पर पत्त्थर रखना पड़ा|
तीसरे दिन जब दिन ढलने के समय जंगल से लकडियों का गठ्ठर लेकर घर पहुँची तो उसे ओपनी झोपड़ी से थोड़ी दूर पर दिग्विजय दिखाई दिया| समझ गई वे जरूर उसे देखने आए है| अपने आप पर गर्व सा हो गया उसे…उसका मुरझाया हुआ चेहरा फूल की तरह खिल उठा| झोपड़ी के सामने गठ्ठर पटककर उसने घूमकर अपने प्रियतम को देखा…दूर से ही आँखें मिली|
दिग्विजय ने आँखों के इशारों से उसे अपने पास बुलाया|
फुलमतिया ने आँखों में ही अपनी विवशता जाहिर कर दी|
दिग्विजय जैसे दीवाना हो गया था| झोपड़ी की ओर बढ़ने लगा|
किसी के द्वारा देख लिए जाने से डर गई वह| खोजी नजरों से इधर-उधर तोह ली| सौभाग्य से दूर-दूर तक कोई नहीं था| उसका बापू भी काम पर गया था| उसने दिग्विजय को मना करना चाहा पर तब तक देर हो चुकी थी| वह उसके पास पहुँच चूका था|
फुलमतिया को कुछ नहीं सूझा तो वह झोपड़ी के पीछे पेड़ों के झुरमुट में चली गई, जहाँ उनके देखे जाने की संभावना काफी कम थी|
दिग्विजय भी उसके पीछे-पीछे पहुँच गया और उसे अपनी बाँहों में भर लिया|
कुँवर साहब आपको यहाँ नहीं आना चाहिए था| कोई देख लेगा तो आपकी बदनामी हो जाएगी|
दिग्विजय ने जैसे उसकी बात सुनी ही नहीं….वह तो पागलों की तरह उसके चेहरे पर जगह-जगह चूमें जा रहा था|
फुलमतिया भी पिघलने लगी…लता की तरह लिपट गई|
दोनों एक-दूसरे में समा जाना चाहते थे|
मैं तुम्हारे बिना जिन्दा नहीं रह सकता…..
फुलमतिया का मैला हाथ उसके मुँह पर पहुँच गया और दिग्विजय अपनी बात पूरी नहीं क्र सका|
बड़ी-बड़ी आँखों से उसने मना कर दिया| दिग्विजय ने हौले से उसका हाथ अपने हाथ में लेकर चूमते हुए कहा-
मैं क्या करूँ…तुम्हारे बिना सब सूना-सूना सा लगता है|
फुलमतिया ने दिग्विजय के चेहरे को अपने दोनों हाथों में ले लिया और उन्माद में उसे चूमने लगी| उसकी आँखों में आंसू बह पड़ना चाहते थे| उन्हें रोकने का प्रयास करते हुए भावुक होकर कहा-
मुझे इतना प्यार मत दो मेरे देवता! मैं पागल हो जाऊँगी|
उसके बाद कुछ देर के लिए वे दुनिया को भूल गए|
तुफ़ान गुजर गया तो फुलमतिया ने बापु के आने की बात बताकर उसे जाने के लिए कहा|
दिग्विजय भी अब हल्का हो चुका था| उसे लगा यहाँ अधिक ठहरना उचित नहीं है|
पहले फुलमतिया पीछे से निकलकर आई| इधर-उधर देखकर उसने दिग्विजय को आने का इशारा किया|
विदा लेते समय दिग्विजय ने उसे एक बार फिर आपनी बाँहों में ले लिया|
फुलमतिया ने प्यार भरी आँखों से उसे देखा…उसके होठों को चूमकर बोली- यहाँ फिर मत आना…मेरी जैसी छोटी जाति की लड़की के लिए आप बदनाम हों…यह ठीक नहीं होगा| फुलमतिया ने यह जिंदगी तुम्हारे नाम कर दी है|
दिग्विजय चला गया तो फुलमतिया अंदर झोपड़ी में चारपाई पर पड़ गई| एक नशा सा चढ़ा हुआ था| सारा शरीर टूट रहा था| आँखें बन्द हुई जा रही थी| बाहर अँधेरा बढ़ने लगा था परन्तु फुलमतिया को कुछ आभास नहीं था|
उसके बापु ने आकर उठाया तो उस पर सर दर्द का बहाना करके पड़ी रही| वह अभी भी अनुभूतियों के सागर में तैर रही थी| इस सुख को वह ज्यादा से ज्यादा देर तक बनाए रखना चाहती थी|
तीन-चार दिन बीत गए| एक दिन जब फुलमतिया मंदिर से बाहर निकली थी तो बाहर दिग्विजय खड़ा था|
एकदम उदास और थका-थका सा….जैसे कई दिनों से सोया न हो|
प्रियतम का यह रूप देखकर उसका हृदय कसक उठा| आँखों में पानी भर आया| पास आई तो भरी आवाज में कहा-‘यह क्या हालत क्र रखी है आपने’
आगे उसका गला रूंध गया…शब्द नहीं निकले| मन हुआ दौड़कर उसके सीने से लग जाय परन्तु अवसर नहीं था|स्वयं पर निय्न्त्रण रखे रही….बस भीगी आँखों से उसे देखती रही… दीवानी सी…..
दिग्विजय ने कहा-
तुम्हारे बिना सब सूना-सूना सा लगता है| कुछ भी मन को नहीं भाता…तुम्हारी सूरत हर समय आँखों में नाचती रहती है|
फुलमतिया की भी यही हालत थी, क्या उपाय बताती| वह एक तक देखती …उसके मुखड़े को मानो कह रही हो…..
मैं…. इतना प्यार….मुझ अभागन से…धन्य हो गई हूँ मैं…….
दिग्विजय आगे कह रहा था-
यहाँ रहकर इस दूरी को बरदाशत करना अब मेरे बीएस में नहीं है| आज शहर लौटकर जा रहा हूँ…शायद मन कुछ सब्र कर सके|
फुलमतिया चुप रही… कहने को कुछ था भी नहीं… अपनी व्यथा सुनाकर प्रियतम का दुःख और नहीं बढ़ाना चाहती थी|
चुपचाप जमीन पर बैठकर उसने दिग्विजय के चरण स्पर्श किये और उसकी चरणरज से अपनी माँग भर ली थी|
दिग्विजय ने उसे उठाया और अपने सीने से लगाकर उसके होंठो पर अपने होंठो से प्यार की मुहर लगा दी|
दिग्विजय शहर चला गया| फुलमतिया बीती यादों के सहारे दिन पूरे करने लगी| उसके बाद दिग्विजय की कोई खबर नहीं मिली उसे| कोई साधन भी नहीं था लेकिन विरह की अग्नि में तपकर फुलमतिया का प्यार कुंदन बन रहा था|
दिग्विजय का एक फोटो उसने राम चरित मानस में रख छोड़ा था और सुबह-शाम देवता की तरह उसकी पूजा करती| कोई दूसरा उसके इस आचरण को पागलपन की संज्ञा देगा परन्तु फुलमतिया तो किसी और पर जी रही थी|
सुबह-शाम मंदिर ज्योति जलाने जाती तो भगवान से अपने प्रियतम के कल्याण और सुख के लिए प्रार्थना करती|
महीना भर बीत गया… फुलमतिया जान गई कि उन दोनों प्यार की निशानी उसकी कोख में पनप रही है| दुनिया से उसे छिपाए ही रही…सिवाय राजो के………|
फुलमतिया की बात सुनकर राजो चिंतित हो गई| उसने गर्भ समाप्त करवा देने को कहा| फुलमतिया तय्यार नहीं हुई… उसका मातृत्त्व जागृत हो चुका था और फिर कैसे वह अपने हाथों से अपने प्यार के फल का बध करती|
समय पर उसने सारे विरोध सहकर भी अपने बेटे को जन्म दिया| उसका बाप इसको छुपाए रखने का प्रयत्न करता हुआ कोई उपाय सोच रहा था लेकिन यह छुपने वाली बात न थी और न छुपी रह सकी| यह खबर जंगल में लगी आग की तरह देखते ही देखते सारे गाँव में फ़ैल गई| सारा गाँव उस पर थू-थू करने लगा|
उसका बाप भी उससे नहीं बोलता था| एकदम अकेली थी फुलमतिया…हाँ…अगर कोई साथ था तो उसकी प्रिय सखी राजो…….| वही अकेली थी जो धीरज बँधाती थी, वरना फुलमतिया अकेली अपने दुःख को कम करने के लिए अपने बेटे को निहारती रहती या उससे उसके पिता की बातें करती|
गाँव के लोगों ने फुलमतिया के मामले में पंचायत करने का फैसला लिया|
उसका बाप चिंतित हो गया| राजो भी परेशान हो गई पर फुलमतिया एकदम शांत थी जैसे उसे कोई चिंता नहीं थी|प्रेम की पवित्र भावना के जिस धरातल पर निवास करती थी वहाँ किसी भय के लिए कोई स्थान था भी नहीं|
फुलमतिया को अपना अंजाम मालुम था… उसे गाँव छोड़ना पड़ेगा| वह पूरी तरह तैयार थी… हर स्थित का सामना करने के लिए| उसके एक मन ने कहा- एक दिन चुप-चाप गाँव छोड़कर अपने बेटे के साथ कहीं चली जाय…पर जा न सकी| चोरी से मुँह छुपाकर भागकर वह अपने प्रेम को कलंकित नहीं करना चाहती थी| उसकी एक ही अभिलाषा थी… एक बार अपने देवता को अपना बेटा दिखा देने की और उनके चरण छूकर विदा लेने की|
पंचायत से एकदिन पहले जब गाँव के लोग अपनी-अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने में व्यस्थ थे| प्रधान फुलमतिया के बहाने ठाकुर साहब से दुश्मनी निकालने की तैयारी में लगा है| लोगों को ठाकुर साहब के खिलाफ भड़काकर जनमत तैयार कर रहा है|
फुलमतिया अपनी झोपड़ी के दरवाजे पर बैठी हुई हाथ में एक नुकीला पत्थर लिए रेतीली जमीन पर लकीरें खीच रही थी| ख्यालों खोई हुई सोच रही थी… क्यूँ नहीं आए… कौन सी मजबूरी हो गई है… भूल तो नहीं गए… उनके दर्शन की साध पूरी होगी या नही…..?
फुलमतिया विचारों में इतनी खो गई कि उसे अपने जिगर के टुकड़े के रोने की आवाज भी सुनाई नहीं पड़ रही है|
राजो ने उसकी विचार श्रृंखला को भंग किया तथा अंदर झोपड़ी में बच्चे के रोने की सूचना दी| फुलमतिया ने खोई-खोई आँखों से राजो को देखा….
आँखों में एक ही प्रश्न था…मेरी चिट्ठी उन तक पहुँचवा दी या नहीं….?
राजो ने उसके भार को पढ़ लिया तथा तसल्ली देते हुए उसे चिट्ठी पहुँचवा देने की बात कही|
फुलमतिया ने गहरी साँस छोड़कर मिट्टी की दीवारों से पीठ लगाकर आसमान में देखा|
राजो अंदर से बच्चे को लेकर आ गई| वह चुप होकर माँ को देखने लगा…जैसे उसकी व्यथा का अहसास हो गया हो| थोड़ी देर के मौन के बाद राजो ने कहा-
तू पंचायत के सामने कह क्यों नहीं देती, उसका बाप ठाकुर का लड़का है| तूने शादी की है उससे मंदिर में…. गवाही दूँगी तेरी|
फुलमतिया ने सखी की ओर देखा… बोली- उनकी बदनामी नहीं होगी क्या… हवेली की इज्जत मिट्टी नहीं मिल जाएगी| हवेली की शान का क्या होगा फिर… मेरे ऊपर दुःख पड़ा है तो उससे बचने के लिए इतना सब दाँव पर लगा दूँ… इतना गिर जाँऊ क्या…| जिसे मन से देवता मान लिया है उसी के विनाश का कारण बनूँ…..? सब कुछ तो उन चरणों में अर्पित कर चुकी हूँ…अब क्या है मेरे पास जिसे बचाने के लिए यह पाप करूँ….|
पर फल…राजो ने उसे समझाने का प्रयास किया|
फुलमतिया ने उसे रोकते हुए कहा- तू मुझसे बहुत प्यार करती है… इतना तो कोई माँ… भाई भी न करती… इसी से मेरा दुःख नहीं देख सकती| पर बहन… मुझे तो परीक्षा देनी है| धर्म से गिर गई तो इस जालिम दुनिया का सामना नहीं कर पाऊँगी… तू देख लेना मेरा प्यार हार नहीं सकता… मैं जीतकर दिखाऊँगी… अपने आपको उनके लिए न्योछावर कर दूँगी…..|
राजो खामोश हो गई और क्या करती…. बस फुलमतिया के चेहरे को देखती रही… उसकी आँखों में आँसू आ गए|
मन में सोच रही थी- ऐसे पवित्र विचार लेकर कहाँ पैदा हो गई तू… यहाँ कौन कदर करेगा तेरी….?
रात का आखरी पहर था| राजो जा चुकी थी| फुलमतिया अपने बेटे को दूध पीला रही है| उसके हाथ में दिग्विजय का फोटा था, जिसे निहार रही थी वह|
फोटा रखकर उसने गोद में सोए हुए बेटे को देखा…फिर उसे चूम लिया| चारपाई पर लिटाकर उसे कपड़ा ओढ़ा रही थी कि मुर्गे ने बाग देकररात बीत जाने की सूचना दी| वह खड़ी हुई और बेटे को एक बार चूमकर झोपड़ी से बाहर निकली|
रात की शांति के बाद सूर्य की किरण फूटने के साथ ही गाँव में लोगों की हलचल शरू ही गई|
उस समय फुलमतिया मंदिर में भगवान की मूर्ति के सामने प्रार्थना कर रही थी|
तुम तो जानते हो मैंने कोई पाप नहीं किया…आज अग्नि परीक्षा मेरे प्रेम और विश्वास की लाज रखनी पड़ेगी…. तुझे कसम है अपने राधा की……|
प्रार्थना के बाद जब फुलमतिया मंदिर के बाहर आई तो उसका मुख-मंडल दमक रहा था| पंडित जी मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ना चाहते ही थे कि उसे देखकर रुक गए| उसके पास पहुँचकर फुलमतिया ने उनके चरण स्पर्श करके आशीर्वाद प्राप्त किया|
फुलमतिया ने खड़े होकर पंडित जी की ओर देखा…| पंडित जी की अनुभवी आँखें उसकी व्यथा को जान गईं|
धैर्य रखो… आज अग्नि परीक्षा है तुम्हारी………
फुलमतिया ने प्रश्न किया- आप तो धर्म को जानते है, क्या मैंने पाप किया है?
पंडित जी उसका आशय जान गए थे….मुस्कराए- ‘प्रेम तो जीव की सबसे पवित्र भावना है, पाप कैसे हो सकती है|पवित्र भावना से किया गया कोई भी कार्य धर्म के विरोध में नहीं हो सकता| यदि तमने मन की पवित्रता से प्रेम किया है तो तुम्हारी हार की कोई संभावना नहीं| समाज या पंचायत तो भीड़ की संस्थाएं है….वहाँ निर्णय बहुमत की सुविधाओं को ध्यान में रखकर होता है… धर्म का विचार नहीं होता वहाँ……|
यह तो समय निश्चित करेगा कि तुम रुक्मणी के आसन पर विराजमान होती हो या राधा के…..पर हर स्थित में जीत तुम्हारी ही होगी|
गाँव में पंचायत की तय्यारी हो चुकी थी| लोग जुड़ना शुरू हो गए थे…अलग-अलग भावनाएं लिए……|
कोई फुलमतिया का अंजाम जानना चाहता था तो कोई ठाकुर साहब की इज्जत का… किसी को सिर्फ तमाशे से मतलब था| कुछ कोमल हृदय ऐसे भी थे जिन्हें फुलमतिया के साथ हमदर्दी थी और दिग्विजय को गाली दे रहे थे|
फुलमतिया झोपड़ी में प्रियतम का फोटो सामने रखे आखिरी बात कह रही थी| उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे,जिन्हें वह हमेशा रोके रहने की आज तक कोशिश करती रही| आज उसका धर्य जवाब दे चुका था|
तुम नहीं आए…तुम्हारी मजबूरी को जानती हूँ मैं…बस एक साध थी, एक बार तुम्हारी चरण-रज से अपनी माँग भर पाती……पर शायद मेरा भाग्य ही कमजोर है… मेरे विश्वास में कोई कमी रह गई है|
मैं तुम्हारे लायक नहीं हूँ… जो थोड़े से फूल तुमने मुझ अभागन की झोली में दाल दिए है उसी से मेरा जीवन सार्थक हो गया है| इस खुश्बू से मेरा मन हमेशा महकता रहेगा उन मीठी-मीठी यादों के सहारे, मैं अपना जीवन काट दूँगी फिर तुम्हारे प्यार की निशानी तो मेरे पास है ही…..तुमने तो देखा नहीं उसे… तुम्ही पर गया है| उसकी आँखें बिलकुल तुम्हारी जैसी है…तुम्हारी ही तरह प्यार से देखता है मुझे|
आज पंचायत है… गाँव वाले हमारे बेटे के पिता का नाम जानना चाहते हैं, पर तुम चिंता मत करना… मेरे जीते जी तुम्हारी इज्जत पर आँच नहीं आ सकती| शायद आज आखिरी दिन हो मेरा गाँव में….| पता नहीं कहाँ जाऊँगी…अपनी फूल के लिए दुखी मत होना| आशीर्वाद दो मुझे…..|
पंचायत में जब फुलमतिया पहुँची तो उसके चेहरे से तेज टपक रहा था| एकदम शांत… कोई हर्ष और विषाद नहीं|फुलमतिया को देखकर सारी भीड़ एकदम शांत हो गई| सभी उसे आश्चर्य से देख रहे थे|
पंचायत की औपचारिक्ता शुरू हुई| उसका अपराध बताया गया|
वह चुपचाप सुनती रही बिना किसी प्रतिक्रिया के…….|
प्रधान ने बच्चे के पिता का नाम बताने के लिए कहा|
फुलमतिया ने बिना कोई शब्द बोले प्रधान की तरफ देखा फिर चारो ओर खड़ी हुई भीड़ को|
सभी साँस रोके उसके उत्तर की प्रतीक्षा कर रहे थे|
प्रधान ने किसना की शिकायत की चर्चा की और दिग्विजय का नाम लेकर फुलमतिया से जानना चाहा कि क्या यह सही है कि वही उसके बच्चे का बाप है|
फुलमतिया ने एकबार फिर भीड़ की ओर देखा… जग्गू ठाकुर साहब का पुराना लठैत, उसे देख रहा था| फुलमतिया के चेहरे पर दृढ़ता का भाव पैदा हो गया और भीड़ ने आश्चर्य से सुना- नहीं… उनका मुझसे या इस बच्चे से कोई सम्बन्ध नहीं……|
दूसरी औपचारिकताएं भी पूरी हो गई| प्रधान ने… जिसके सारे मंसूबों पर पानी फिर गया था… फुलमतिया के प्रति कठोर रुख अपनाया| उसे मुँह काला करके सारे गाँव में घुमाए जाने तथा गाँव से बाहर निकाल देने की सजा सुनाई गई|
सजा सुन फुलमतिया के चेहरे पर संतोष की मुस्कान आ गई|
उसे खुशी थी कि वह अपने देवता के सम्मान की रक्षा कर सकी|
सब लोग आपस में कानाफूसी कर रहे थे| बस अकेली राजो अपनी भीगी आँखों को मैले आँचल से पोछ रही थी|
गाँव के बीचो-बीच एक पीपल के बड़े वृक्ष के नीचे सारा गाँव जमा था|
फुलमतिया को सजा दिए जाने की तैयारी हो रही थी|
प्रधान पहुँच गए थे|
उनके आदेश पर एक आदमी तवे की स्याही हाथों में लगाकर आगे बढ़ा| वह अपने हाथ फुलमतिया के चेहरे पर लाना ही चाहता था कि सब काँप उठे….
चौंक कर देखे तो ठाकुर साहब जग्गू के साथ, हाथ में बन्दूक लिए खड़े थे जिसकी नाल से अभी भी धुआँ निकल रहा था| उनके चेहरे पर दृढ़ता का भाव था| वे मजमें के बीच फुलमतिया के सामने आ गए|
सब शांत खड़े थे, सिर्फ ठाकुर साहब की आवाज गूँज रही थी- फुलमतिया हवेली की इज्जत है… याद रखना, हम इतने कमजोर नहीं हुए हैं कि अपनी आबरू की हिफाजत न कर सकें|
उसके बाद वे घूमें…प्यार से फुलमतिया के सिर पर हाथ रखते हुए कहा- अपने घर चलो बहू….|
फुलमतिया के आँसुओं का बाँध टूट पड़ा|
उसने कृतज्ञता के भाव से ठाकुर साहब की ओर देखा और उनके चरणों में झुक गई|